Saturday, 8 December 2012

"छलिया मेरा नाम..." - इस गीत पर भी चली थी सेन्सर बोर्ड की कैंची 

सेन्सर बोर्ड की कैंची की धार आज कम ज़रूर हो गई है पर एक ज़माना था जब केवल फ़िल्मी दृश्यों पर ही नहीं बल्कि फ़िल्मी गीतों पर भी कैंची चलती थी। किसी गीत के ज़रिये समाज को कोई ग़लत संदेश न चला जाए, इस तरफ़ पूरा ध्यान रखा जाता था। चोरी, छल-कपट जैसे अनैतिक कार्यों को बढ़ावा देने वाले बोलों पर प्रतिबंध लगता था। फ़िल्म 'छलिया' के शीर्षक गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। गायक मुकेश के अनन्य भक्त पंकज मुकेश के सहयोग से आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' की १६-वीं कड़ी में इसी गीत की चर्चा...  

 

सम्प्रति "कैरेक्टर ढीला है", "भाग डी के बोस" और "बिट्टू सबकी लेगा" जैसे गीतों को सुन कर ऐसा लग रहा है जैसे सेन्सर बोर्ड ने अपनी आँखों के साथ-साथ अपने कानों पर भी ताला लगा लिया है। यह सच है कि समाज बदल चुका है, ५० साल पहले जिस बात को बुरा माना जाता था, आज वह ग्रहणयोग्य है, फिर भी सेन्सर बोर्ड के नरम रुख़ की वजह से आज न केवल हम अपने परिवार जनों के साथ बैठकर कोई फ़िल्म नहीं देख सकते, बल्कि अब तो आलम ऐसा है कि रेडियो पर फ़िल्मी गानें सुनने में भी शर्म महसूस होने लगी है। मुझे याद है "चोली के पीछे क्या है" और "कभी मेरे साथ कोई रात गुज़ार" गीतों के आने पर भी कुछ लोगों ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गई थी, पर सेन्सर बोर्ड के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। ख़ैर, अब चलते हैं पुराने ज़माने में। ५० के दशक में गीता दत्त के गाए फ़िल्म 'आर-पार' के गीत "जाता कहाँ है दीवाने सबकुछ यहाँ है सनम, कुछ तेरे दिल में फ़ीफ़ी, कुछ तेरे दिल में फ़ीफ़ी" को फ़िल्म से हटवा दिया गया था, ऐसा कहा जाता है कि सेन्सर बोर्ड को "फ़ीफ़ी" शब्द से आपत्ति थी क्योंकि इसका अर्थ स्पष्ट नहीं था। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कहाँ से आज कहाँ आ पहुँचे हैं।
राज कपूर - नूतन अभिनीत फ़िल्म 'छलिया' १९६० की सुभाष देसाई निर्मित व मनमोहन देसाई निर्देशित फ़िल्म थी। इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम, हिन्दू मुसलिम सिख इसाई सबको मेरा सलाम" फ़िल्म-संगीत का एक सदाबहार नग़मा रहा है। कल्याणजी-आनन्दजी द्वारा स्वरबद्ध एवं क़मर जलालाबादी का लिखा यह गीत वास्तव में ऐसा नहीं लिखा गया था। इस गीत का मूल मुखड़ा था "छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम, हिन्दू मुसलिम सिख इसाई सबको मेरा सलाम"। अब सेन्सर बोर्ड को "छलना मेरा काम" में आपत्ति थी। बोर्ड के अनुसार यह ग़लत संदेश था समाज के लिए, युवा-पीढ़ी के लिए, और वह भी फ़िल्म के नायक की ज़ुबां से। इसलिए "छलना मेरा काम" की जगह "छलिया मेरा नाम" की पुनरोक्ति कर दी गई। यही नहीं गीत के अंतरों में भी फेर बदल किया गया है। सच तो यह है कि इस गीत के कुल तीन वर्ज़न बने थे। जो वर्ज़न ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड पर जारी हुआ और जो हमें सुनाई देता है, उसके बोल ये रहे:
छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम - २
हिंदू मुसलिम सिख इसाई सबको मेरा सलाम
छलिया मेरा नाम...
देखो लोगों ज़रा तो सोचो बनी कहानी कैसे?
कहीं पे ख़ुशियाँ कहीं पे ग़म है, क्यूं होता है ऐसे-२
वाह रे तेरे काम, कहीं सुबह से शाम
हिंदू मुसलिम....
रोक रहे हैं राहें मेरी नैना तीखे-तीखे,
हम तो ख़ाली बात के रसिया इश्क़ नहीं हम सीखे
जहाँ भी देखा काम, करता वहीं सलाम
हिंदू मुसलिम...
मैं हूँ ग़रीबों का शहज़ादा जो माँगू वो दे दूँ
शहज़ादे तलवार से खेलें मैं अश्क़ों से खेलूँ
मेहनत मेरा काम, देना उसका काम
हिंदू मुसलिम...
पंकज मुकेश के सौजन्य से इस गीत के मूल संस्करण का पता चल पाया है। ये रहा वह संस्करण...
छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम - २
हिंदू मुसलिम सिख इसाई सबको मेरा सलाम
छलिया मेरा नाम...
देखो लोगों ज़रा तो सोचो बनी कहानी कैसे?
तुमने मेरी रोटी छीनी, छीनी मैंने पैसे
सीखा तुम से काम, हुआ मैं बदनाम
हिंदू मुसलिम....
रोक रही हैं राहें मेरी नैना तीखे-तीखे
हम तो ख़ाली माल के रसिया इश्क़ नहीं हम सीखे
जहाँ भी देखा दाम, वहीं निकाला काम
हिंदू मुसलिम...
मैं हूँ गलियों का शहज़ादा जो चाहूँ वो ले लूँ
शहज़ादे तलवार से खेलें मैं कैंची से खेलूँ
मेहनत मेरा काम देना उसका काम
हिंदू मुसलिम...
उपर्युक्त संस्करण के पहले अंतरे को हटाकर कर भी गीत का एक और संसकरण कुछ ऐसा बना था...
छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम - २
हिंदू मुसलिम सिख इसाई सबको मेरा सलाम
छलिया मेरा नाम...
रोक रही हैं राहें मेरी नैना तीखे-तीखे
हम तो ख़ाली माल के रसिया इश्क़ नहीं हम सीखे
जहाँ भी देखा दाम, वहीं निकाला काम
हिंदू मुसलिम...
मैं हूँ गलियों का शहज़ादा जो चाहूँ वो ले लूँ
शहज़ादे तलवार से खेलें मैं कैंची से खेलूँ
मेहनत मेरा काम देना उसका काम
हिंदू मुसलिम...
इस तरह से हम देखते हैं जहाँ-जहाँ असामाजिक व अनैतिक कार्यों की बात की गई थी, उन्हें बदल दिया गया और जो गीत बाहर आया वह एक निहायती ख़ूबसूरत संस्करण था। इसके लिए पूरा श्रेय जाता है क़मर जलालाबादी साहब को। अब 'छलिया' से जुड़ी कुछ और रोचक बातें। राज कपूर अभिनीत फ़िल्मों में अधिकतर शंकर-जयकिशन का संगीत हुआ करता था। इस फ़िल्म के संगीतकार कल्याणजी-आननदजी ज़रूर थे पर गीतों के कम्पोज़िशन में शंकर-जयकिशन का स्टाइल साफ़ झलकता है। संगीतकार का चुनाव निर्माता-निर्देशक की पसन्द थी। विविध भारती के 'जयमाला' में कमर जलालाबादी ने व्यंग करते हुए कहा था, "डिरेक्टर मनमोहन देसाई की पहली फ़िल्म 'छलिया' अपने भाई सुभाष देसाई के लिए डिरेक्ट किया। सुभाष देसाई ने संगीतकार के लिए कल्याणजी-आनन्दजी का नाम चुना। सुभाष देसाई का नाम सुनते ही कल्याणजी भाग खड़े हुए। सुभाष देसाई ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, उन्हें पकड़ कर उन्हें संगीतकार बनाकर ही दम लिया।" क़मर साहब ने यह क्यों कहा कि सुभाष देसाई का नाम सुनते ही कल्याणजी भाई भाग खड़े हुए, यह तो पता नहीं चल पाया, पर यह बात ज़रूर है कि देसाई भाइयों का गीतों पर दखलंदाज़ी रहती थी। फ़िल्म 'छलिया' में राज कपूर पर फ़िल्माये सभी गीत मुकेश के गाए हुए थे सिवाय एक गीत "गली गली सीता रोये आज मेरे देस में" के जिसे रफ़ी साहब से गवाया गया था। जब पंकज मुकेश ने आनन्दजी से यह पूछा कि क्या कारण था कि राज कपूर पर फ़िल्माये गए इस गीत को मुकेश से नहीं गवाया गया, तो आनन्दजी बोले कि कई बार प्रोड्युसर-डिरेक्टर की माँग को भी पूरा करना पड़ता है। और यह तो हम सभी जानते हैं कि मनमोहन देसाई रफ़ी साहब के बहुत बड़े फ़ैन थे। इस तरह से यह एक गीत रफ़ी साहब से न केवल गवाया गया बल्कि फ़िल्म के अन्त में साधारणत: फ़िल्म के शीर्षक गीत को बजाया जाता है जबकि इस फ़िल्म में रफ़ी साहब के गाए इस गीत को बजाया गया।
ख़ैर, आज का मुद्दा था फ़िल्मी गीतों के सेन्सरशिप का। 'छलिया' १९६० की बात थी, पर ७० के दशक के आते-आते सेन्सर बोर्ड ने सख़्ती कुछ कम कर दी। इसका उदाहरण है १९७५ की फ़िल्म 'चोरी मेरा काम' का शीर्षक गीत "कौन यहाँ पर चोर नहीं है सबका है यही काम, वो करते हैं चोरी चोरी, करूँ मैं खुल्ले आम, चोरी मेरा काम यारों"। रोचक बात यह है कि इस गीत के संगीतकार एक बार फिर कल्याणजी-आनन्दजी हैं। १९७२ की फ़िल्म 'बेइमान' के शीर्षक गीत में भी बेइमान की जयजयकार होती सुनाई दी है, और इसमें मुकेश की आवाज़ थी। और मज़ेदार बात इस फ़िल्म के लिए शंकर-जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी दिया गया था। तो बात बस इतनी है कि समाज के बदलने के साथ-साथ, सामाजिक मूल्यों के बदलने के साथ-साथ, फ़िल्म सेन्सरशिप में भी बदलाव आए हैं, लेकिन जैसा शुरू में मैंने कहा था, उसी बात पे ज़ोर दे रहा हूँ कि कल कहीं ऐसा न हो कि फ़िल्मी गीत सुनने के लिए भी बड़े-बुज़ुर्गों से दूर अन्य अलग कमरे में जा कर बैठना पड़े।
आभार :- सुजॉय चटर्जी

 

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