अंजू पंकज की दिव्य प्रेरणा "जय संतोषी माँ"
मैंने देखी पहली फिल्म
फिल्म देख कर सन्तोषी माँ का व्रत करने की इच्छा हुई : अंजू पंकज
मैंने
अपने जीवन में सबसे पहली फिल्म देखी -"जय सन्तोषी माँ"। इस फिल्म के बारे
में हर एक बात मैं आज तक भूल नहीं पायी। सच में पहली फिल्म कुछ ज्यादा ही
यादगार होती है। बात उस समय की हैं जब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी, महज
दस साल कि उम्र थी। दुनियादारी से कहीं दूर एक बच्ची के मन में जो कुछ आता
था, उनमें कहीं न कहीं चम्पक, नन्हें सम्राट, चाचा चौधरी, नागराज, सुपर
कमांडो ध्रुव, इत्यादि बच्चों की किताबों का असर जरूर होता था। यह फिल्म
मैंने अपने पापा-मम्मी और नानी के साथ आगरा के "अंजना टाकीज" में 3 से 6
बजे वाला दूसरा शो देखा था। फिल्म को देखने के बाद मेरे बाल-मन पर जो पहला असर
हुआ वो यही था कि सच्चाई की हमेशा जीत होती है, हमें एक अच्छा इन्सान
बनाना चाहिए, दैवी शक्तियाँ (सन्तोषी माँ) सबके भले-बुरे कर्म देखती हैं और
अन्त में उनके कर्म के अनुसार अच्छा और बुरा फल मिलता है। कितने दुःख की
बात है कि एक ही परिवार में जेठानियाँ अपनी ही देवरानी से साथ दण्डनीय
बर्ताव करती हैं, तरह-तरह की यातनाएँ उसे सहनी पड़ती है। उसका पति जब काम की
तलाश में शहर चला जाता है तो घर के लोग देवरानी को सबका बचा खाना (जूठन)
देती हैं खाने को। यह सब फिल्म में देख कर मेरा दिल भर आया था। मन करता था
कि अगर मैं घर में होती तो सबको कड़ी से कड़ी सजा देती। तभी कुछ देर में माँ
सन्तोषी आती हैं और सारी परेशानी दूर कर देती हैं। मगर उन जेठानियों की हर
बार कुछ नई हरकतें सामने आती, और सन्तोषी माँ बार-बार उसकी मदद करतीं। सबसे
पहली बार जब ये सब दृश्य देखा था तो बस मेरी स्थिति बिलकुल रोने जैसी हो
गई थी। मुझे पता नहीं था की कोई दैवी शक्ति भी बचाने आएगा/आएँगी। मगर जब एक
बार सन्तोषी माँ को प्रकट होते और सारी परेशानी दूर करते देखा तो हर अगले
दृश्य में मैं मन ही मन आवाज़ लगाती कि ‘सन्तोषी माँ, जल्दी आओ, कहाँ हो,
देर मत करो’। फिल्म समाप्त होने पर जब सिनेमाघर की सारी लाइट जली तो मैं
जल्दी से नानी से जा लिपटी। लौटते वक़्त रास्ते में मन में तरह-तरह के
विचार आ रहे थे कि लोग ऐसा क्यों करते हैं, ऐसा नहीं करना चाहिए, ये अच्छी
बात नहीं। बहुत रोका खुद को मगर मैंने पापा से पूछ ही लिया की पापा उन
लोगों (जेठानियों) ने ऐसा क्यों किया? ये सब गलत बात है, वो लोग इतनी बड़ी
होकर छोटी (देवरानी) को परेशान करते थे, ऐसा नहीं किया होता तो वो भी खुश
रहते। पापा ने कहा ये सब कहानी होती है, जैसा तुम किताबों में पढ़ती हो, इस
बार तुमने चलती-फिरती तसवीरों के रूप में देखा है, बस इतना ही अन्तर है।
पापा के जवाब ने थोड़ी देर के लिए मुझे शान्त तो किया, मगर मन को पूरी तरह
सन्तुष्टि नहीं मिली। फिर मेरे मन में ख़याल आता कि पापा ने मुझे छोटी बच्ची
समझ कर बहला दिया है। सच वही है जो मैं सोच रही हूँ।
इस फिल्म के सभी गाने मुझे अच्छे लगे। परन्तु- "यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मत पूछो कहाँ कहाँ..." और "मैं तो आरती उतारूँ रे सन्तोषी माता की, जय जय सन्तोषी माता जय जय माँ..."
मुझे आज भी बेहद पसन्द है। इस फिल्म को देखने और इसके गाने सुनने के बाद
मेरी आस्था और श्रद्धा सन्तोषी माँ के बढ़ गई थी। मेरा भी मन करता था की मैं
भी शुक्रवार का व्रत रखूँ। आज जब इस फिल्म के बारे मैं पढ़ती हूँ अखबारों
में, इन्टरनेट पर तो मन ही मन अपने बचपन को याद करती हूँ। आज भले ही मैं
इसे अपना बचपना समझ कर टाल जाऊँ, परन्तु सच तो यही है कि उन दिनों न जाने
कितनी महिलाओं ने इस फिल्म को देखने के बाद सोलह शुक्रवार का व्रत रखना
शुरू कर दिया था।
1975
में प्रदर्शित फिल्म ‘जय सन्तोषी माँ’ बॉक्स आफिस पर अत्यन्त सफल धार्मिक
फिल्म थी। इस फिल्म का दो गीत, जो अंजू जी को सर्वाधिक पसन्द है, उन्हें हम
आपको भी सुनवाते है। इन गीतों के संगीतकार सी. अर्जुन और गीतकार प्रदीप
हैं।
फिल्म – जय सन्तोषी माँ : ‘मैं तो आरती उतारूँ रे...’ : ऊषा मंगेशकर और साथी
https://www.youtube.com/watch?v=0TQcoopaUcE
आभार :-कृष्णमोहन मिश्र जी !!!
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